मदनलाल भाटिया ने एक-एक पैसा जमाकर जुटाई रकम से अपने भाई की पुण्यतिथि पर हॉस्पिटल के कैंपस में मरीज और उनके परिजनों के लिए लंगर लगाया। आज तंगहाली की जिंदगी गुजारन वाले मदनलाल का ताल्लुक करोड़पति परिवार से है। उनके पिता कभी शानदार मकान में रहते थे। बड़ा बिजनेस था, लेकिन पारिवारिक विवाद के चलते उन्हें घर से अलग कर दिया गया। पूरे परिवार में अकेले रह गए भाटिया फिलहाल एक छप्पर के नीचे रहने मजबूर हैं। कैसे तबाह होता गया ये करोड़पति परिवार…
पिता की मौत से शुरू हुई बर्बादी की कहानी
– मदनलाल आज सड़क पर आ खड़े हुए हैं। वे डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल के कैंपस के कई मेडिकल स्टोर्स पर काम करने काे मजबूर हैं।
– पिता एक निजी कंपनी में काम करते थे तो कंपनी की तरफ से एक अच्छा क्वार्टर मिल गया। परिवार सुख-चैन से रहता था।
– 26 जनवरी, 1997 काे पिता की अचानक मौत हो गई। इस सदमे को परिवार झेल नहीं पाया और हमारी बर्बादी की कहानी यहीं से शुरू हो गई।
– छलकते आंसू पोंछते हुए वे बताते हैं कि पिता की मौत के कारण दोनों बड़े भाई होश खो बैठे। बहन भी एकदम खामोश हो गई। कुछ दिनों बाद बहन को मिर्गी के दौरे आने लगे।
– बढ़ती बीमारी और इलाज का इंतजाम न हो पाने से 2005 में वह भी दुनिया छोड़ गई। उस समय बहन संतोष कुमारी की उम्र महज 35 साल थी।
एक छप्पर के नीचे आ गया पूरा परिवार
– कमाई का कोई जरिया नहीं रहा। जिस क्वार्टर में रहते थे, पिता की मौत के बाद वह भी खाली करना पड़ा।
– पूरा परिवार डिस्ट्रिक्ट हॉस्पिटल के बाहर एक छप्पर के नीचे आकर बैठ गया। अब वही छप्पर उनका ठिकाना था।
– हालात इतने बुरे हो गए कि परिवार दिनभर कबाड़ चुनता, तब कहीं जाकर रात के खाने का इंतजाम हो पाता।
– मदनलाल के परिवार का दर्द यहीं कम नहीं हुआ। परिवार के इससे भी बुरे दिन शुरू हुए 2001 में जब उनके बड़े भाई राजेंद्र प्रसाद की मौत हो गई। अगले ही साल दूसरे बड़े भाई श्यामलाल की ठंड से मौत हो गई।
– पति और दो बेटों की मौत ने मां को झकझोर दिया है। वे बीमार रहने लगीं। भाई की मौत के बाद तो मां एकदम टूट गई। वे एकदम खामोश हो गईं और दिनभर रोती रहती थीं।
– वे इतनी तेजी से खत्म होते परिवार का सदमा झेल नहीं पाईं और 2004 में वे भी चल बसीं।
पूरे परिवार में अकेले रह गए मदनलाल
– अब परिवार में मदनलाल और छोटा भाई कृष्णलाल ही बचे थे। दो साल पहले सांस की तकलीफ से छोटा भाई भी चल बसा। मदनलाल अकेले रह गए।
– उन्हें एक मेडिकल स्टोर चलाने वाले गोपाल तरड़ की सलाह पर भाई की लाश का अंतिम संस्कार करने की बजाय मेडिकल कॉलेज में बॉडी डोनेट कर दी ।
– अब एक ऑटो ड्राइवर उनके लिए खाना लेकर आता है। हर महीने 25 मेडिकल स्टोर्स से मिलने वाले 30-30 रुपए वे खर्च नहीं करते।
– सालभर इकठ्ठा किए गए इन पैसों से परिवार की याद में जरूरतमंदों के लिए लंगर लगा देते हैं।
– वे कहते हैं कि जब मैं इस दुनिया में न रहूं तो मेरे शरीर का अंतिम संस्कार करने के बजाय मेरी बॉडी भी डोनेट कर दिया जाए। शायद इससे किसी का भला हो जाए।
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